शहर का आलम बाग़ी हो तब तो घर से बाहर निकलें
अभी तो सड़कों पर मुर्दे जाकर किससे क्या बात करें
कुछ आग जले या धूप खिले या चिंगारी ही मिल जाए
अभी तो फैली धुंध ही धुंध बैठे हम हाथ पर हाथ धरे
हर रोज सताए जाते जो उनकी सिसकी ही सुनाई दे
अभी तो सिले हुए हैं लब कुछ कहा नहीं बस रोज मरे
बर्फ सा खून कभी पिघले तो चाबुक उनसे छीन ही लें
हैं पीठ पे जैसे निशां अपने वैसे उस पीठ पे भी उभरें
ना तू मुझ पर ना मैं तुझ पर फेंके जो हाथों में पत्थर
जो पत्थर देने वाले हैं इक बार तो उन्हीं पर वार करें
-अशोक जमनानी
अभी तो सड़कों पर मुर्दे जाकर किससे क्या बात करें
कुछ आग जले या धूप खिले या चिंगारी ही मिल जाए
अभी तो फैली धुंध ही धुंध बैठे हम हाथ पर हाथ धरे
हर रोज सताए जाते जो उनकी सिसकी ही सुनाई दे
अभी तो सिले हुए हैं लब कुछ कहा नहीं बस रोज मरे
बर्फ सा खून कभी पिघले तो चाबुक उनसे छीन ही लें
हैं पीठ पे जैसे निशां अपने वैसे उस पीठ पे भी उभरें
ना तू मुझ पर ना मैं तुझ पर फेंके जो हाथों में पत्थर
जो पत्थर देने वाले हैं इक बार तो उन्हीं पर वार करें
-अशोक जमनानी