वो मेरे ही साथ-साथ चलता रहा
आंखों में झूठा ख़्वाब पलता रहा
कुछ तो मिट्टी ही अपनी गीली है
बारिश में घर से मैं निकलता रहा
तेरा ख़्याल बहुत रेशमी मेरे हमदम
उसे लेकर मैं पत्थरों पे चलता रहा
कौड़ियां जोड़ने के वास्ते रहा जीता
खर्च सांसों का संग संग चलता रहा
रेत पर सीपियों को हम सजाते रहे
ये वक्त समंदर भी आगे बढ़ता रहा
- अशोक जमनानी