परिंदों शाम को लौट आना घर ज़रा ज़ल्दी
हम दीवारें इस ख़ामोशी से ऊब जातीं हैं
उतने ही दानें चुनो जितनी ज़रूरत है हमें
यहां कितनी चोंचें घोंसलों में रीती आतीं हैं
जुगनुओं से कह दो ना रात में चमका करें
वो रोशनी महलों की इससे खीज जाती है
उनसे ना मिलना गले जो ख़ंजरों को बेचते
उनकी उंगलियां बेवज़ह भी कसमसातीं हैं
जश्न का माहौल है इस शहर को छोड़ दें
सुना है हर जश्न से हक़ीकत दूर जाती है