ओ सुशोभित दीप पावन
लज्जा तुम्हें आती नहीं
जहां रोशनी बहुत है
तुम भी वहां जाकर बसे
मिट्टी मिली थी जब तुम्हें
ली तुमने इक सौगंध थी
चाक पर जब तुम चढ़े
ली तब भी तो सौगंध थी
अग्नि में तपते हुए और
रंग में रंगते हुए
शपथ पथ पर तुम चले
तब स्वप्न नयनों में पले
घृत वर्तिका तुमको मिले
चैतन्य होकर तुम जले
डूबे हैं अंधकार में
सदियों से इंतज़ार में
उन आंगनों की आह भी
कोई असर न कर सकी
युगों से हैं पुकारते
ना रोशनी है मिल सकी
देवालयों में छा गए
महलों में भी तुम आ गए
रोशनी के समुद्र में तुम
ना जाने क्यों समा गए
कोटि-कोटि जन के मन
अब भी तुम्हें पुकारते
अंधकार है बहुत
वो राह हैं निहारते
महलों और देवालय में तो
है चांद भी सूरज भी है
रोशनी की इक किरण की
कहीं और ज़रूरत भी है
इस बार तो तुम चल पड़ो
सब रोशनी लेकर वहां
सदियों से अंधकार ही
ठहरा हुआ है बस जहां
सदियों से अंधकार हां
ठहरा हुआ है बस वहां
- अशोक जमनानी