दीप खिलखिलाएंगे
शरारती बच्चों की तरह
इस बार भी दीवाली पर
जैसे बाग के आम-अमरूदों
पर फेंककर पत्थर हैं भागते
जैसे गेंद से तोड़ते कांच को
फिर भागने की राह तलाशते
जैसे स्कूल की छुट्टी होते ही
बाहर निकलते हैं कूदते-फांदते
वैसे ही गहरे अंधकार पर
उछाल देंगे छोटी-सी रोशनी
अमावस्या के स्याह कांच को तोड़कर
चिढ़ाएंगे आसमान को मुंडेर पे बैठकर
घरों से निकलकर आंगन में बैठेंगे
तो कोई रोक न पायेगा हंगामे को
दीप खिलखिलाएंगे
शरारती बच्चों की तरह
इस बार भी दीवाली पर
और अमावस्या का काला आसमान
जो चाँद-सूरज को देकर छुट्टी
देख रहा था सपना
निरंकुश सत्ता का
सिर धुनेगा
देख रहा था सपना
निरंकुश सत्ता का
सिर धुनेगा
इस बार भी दीवाली पर
क्योंकि
क्योंकि
दीप खिलखिलाएंगे
शरारती बच्चों की तरह
इस बार भी दीवाली पर
- अशोक जमनानी