मध्य प्रदेश का एक छोटा-सा जिला है बैतूल . कुछ समय पूर्व वहां के एक
प्रतिष्ठित विद्यालय भारत -भारती में साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश ने एक
अभिनव प्रयोग करते हुए जन जातीय युवा रचनाकारों के लिए एक कार्यशाला का
आयोजन किया. मुझे इस कार्यशाला को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया
जो मेरे लिए एक सुखद अनुभव बन गया . जनजातीय युवाओं की प्रतिभा ने सदैव
मुझे चमत्कृत किया है और इसका विशद अनुभव मुझे छपाक- छपाक लिखने के दौरान
जिस ढंग से हुआ उसे मैं संभवतः कभी नहीं भूल पाऊंगा . उस कार्यशाला में भी
युवा रचनाकारों ने जिस स्तर की रचनाधर्मिता का परिचय दिया वो उनके उजले
भविष्य का ही परिचायक थी हमारा थोड़ा-सा मार्गदर्शन तो बस उनकी राह ज़रा
आसन कर सकता है और कुछ नहीं. इस पूरे घटनाक्रम में एक और दृश्य मेरे
स्मृति-पटल पर अंकित हुआ और वो था भारत- भारती विद्यालय के अतिथि-गृह का
सुरम्य मार्ग .
प्रकृति का सानिध्य तो पूरे विद्यालय को प्राप्त है परन्तु
अतिथि-गृह तक जाने वाला एक छोटा-सा मार्ग जिस तरह वृक्षों और लता-गुल्मों
से ढंका हुआ अतिथि-गृह तक पहुँचता है वो बरबस ही पथिक को बांध लेता है .
जनजातीय युवा रचनाकारों से मिलने के बाद और उस मार्ग पर बहुत देर रुकने के
दौरान न जाने क्यों दुष्यंत कुमार का एक शेर बहुत याद आया
जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए