खम्मा लेखन के लिए राजस्थान यात्रा
किले,महलों,हवेलियों,मंदिरों और मरुभूमि से कुछ दिनों की मुलाकातों के बाद मैं एक बार फिर लौटा उन गाँवों की ओर जहां मेरी कहानी का जीवन है। इस बार मुझे कोटड़ा,न्यू कोटड़ा,तालोका और शिव जाना था. सबकी बातें लिखूंगा तो शायद एक और किताब लिखनी पड़ेगी इसलिए आज सिर्फ न्यू कोटड़ा की बात करेंगे. कितना अजीब लगता है ये सुनना कि जहां बारिश के लिए आसमान की ओर देखते-देखते आँखे थक जाती हैं वहां एक ऐसा भी गाँव है जहां वो लोग रहते हैं जिनके घर बाढ़ में उजड़ गए। २००६ में बाड़मेर में आयी बाढ़ ने पूरे देश को चौंका दिया था और वहां रहने वाले लोगों ने तो कभी स्वप्न में भी उसकी कल्पना नहीं की थी। पर प्रकृति को तो जब-जब अपनी सामर्थ्य दिखानी होती है वो तब-तब मनुष्य द्वारा स्थापित सारी मान्यताओं को पल भर में ही ध्वस्त करके कोई नयी-सी कहानी लिख देती है और मनुष्य ठगा-सा ही रह जाता है।
बाड़मेर के
जालेला गाँव
में रहने
वाले लोग
भी तब
ठगे से
ही रह
गए थे
जब उनके
घर उस
पानी ने
उजाड़ दिए
थे जिसके
लिए वो
न जाने
कितनी प्रार्थनाएँ
किया करते
थे। बाढ़
उतरी तो
सरकार और
कुछ स्वयंसेवी
संस्थाओं ने
बाढ़-पीड़ितों
के कल्याण
के लिए
कदम बढ़ाए
चूँकि आधिकांश
परिवार कलाकारों
के थे
इसलिए ध्यानाकर्षण
भी अधिक
था। बस
इस तरह
एक नयी
बस्ती - न्यू
कोटड़ा का
जन्म हुआ। हुक्मरानों और समाजसेवियों ने फोटों
खिचवायें , जय-जय कार सुनी,ख़बरों में
गूंजे और
विस्थापितों को छोड़कर चलते बने। बिना ये
सोचे कि
विस्थापान कितनी पीड़ादायक प्रक्रिया है
और ये
साधनों से
आधिक संवेदनशीलता
की मांग
करती है। पर सरकार
के पास
हज़ार काम,
समाजसेवियों के पास नया ठिकाना।
कौन सुध
लेता और
क्यों सुध
लेता ? आज
इस गाँव
में लगभग
६५ घर
हैं जिनमे
से ३०
घर कलाकारों
के हैं
पर गाँव
में आज
भी बिजली
नहीं है। बस्ती के
अधिकांश घर
झोंपड़ीनुमा बनाये गए थे ताकि
वो बस्ती
कलात्मक दिखे
पर अब
वो सब
घर गिरने
की कगार
पर हैं। न जाने
किस विद्वान्
की सलाह
पर बस्ती
सड़क से
दूर बनायीं
गयी और
आज तक
वहां जाने
का कोई
पक्का रास्ता
नहीं बना
और सबसे
दुख:द
बात है
पानी की
अनुपलब्धता. गाँव के लोग कहते
हैं 'पानी
ने हमें
उजाड़ा अब
पानी ही
हमें उजाड़ेगा
' आज भी
गाँव के
हर परिवार
को पानी
के लिए
महीने में
१००० रुपये
खर्च करने
पड़ते हैं
जो उनकी
आय का
एक बड़ा
हिस्सा होता
है।
बच्चों
के लिए
प्राथमिक स्कूल
तक वहां
नहीं है
जो है
वो वहां
से २
किलोमीटर दूर
है और
उस स्थिति
में जब
अधिकाँश लोगों
की जीविका
का साधन
कला हो
जिसके लिए
उन्हें अक्सर
बाहर रहना
पड़ता हो
तब बच्चों
को स्कूल
लेकर कौन
जाए?? ये
केवल राजस्थान
के एक
गाँव की
स्थिति नहीं
है ये
देश के
अधिकांश गाँवों
की कहानी
है फिर
भी इसे
लिखना इसलिए
जरूरी है
क्योंकि वहां
कलाकारों के
कई परिवार
रहते हैं। कलाकारों के लिए बाकी लोगों
से अलग
मापदंड हों
ये मैं
कभी नहीं
चाहूँगा पर
जिस तेज़ी
से लोक
कलाएं लुप्त
हो रहीं
हैं तो
ऐसे समय
में हमारी
सरकारों को
और हमें
ये सोचना
होगा कि
कहीं अपने
रोज़मर्रा के
संघर्ष में
उलझकर ये
कलाकार वो
न खो
दे जिसके
बनने में
सदियाँ लगी
हैं. आज
इस गाँव
में बुजुर्ग
मिश्री खां
युवा नेहरु
खां और
नन्हा देबू
खां एक
सी शिद्दत
से गाते
हैं पर
धीरे-धीरे
वक़्त की
रेत इनके
इरादों की
ओर बढ़
रही है
और इनका
विश्वास भी
डगमगाने लगा
है। हर
समाज का
और हर
सरकार का
ये कर्तव्य
होता है
कि वो
अपने कलाकारों
को इज्ज़त
के साथ
जीने का
अवसर उपलब्ध
करवाए विशेष
तौर पर
उन कलाकारों
को जिनकी
कला में
अपने देश
की संस्कृति
महकती हो
फिर चाहे
उससे कोई
ग्लैमर जुड़ा
हो या
न जुड़ा
हो। क्योंकि
ऐसे कलाकार
केवल मनोरंजन
नहीं करते
वरन ये
कला के
माध्यम से
उस सम्भावना
को भी
जीवित रखते
हैं जिनके
कारण मनुष्य
, मनुष्य बनता
है। जिस
दौर में
तकनीकी और
अर्थ प्रधानता
ने मनुष्य
को मशीन
बनाने में
कोई कसर
न छोड़ी
हो उस
दौर में
इन कलाकारों
का अपनी
कला के
सम्पूर्ण सौन्दर्य
के साथ
बच जाना
वैसे भी
किसी चमत्कार
से कम
नहीं है
और इसका
कारण है
हमारी कालजयी
संस्कृति, और संस्कृति के उसी
सौंदर्य की
एक बानगी
कोटड़ा में
मेरा इंतज़ार
कर रही
थी।
राजस्थान
के गाँवों
में एक
परंपरा है
जो हमारी
संस्कृति के
सौन्दर्य को
ही दिखाती
है जब
भी गाँव
में कोई
अतिथि आता
है तो
प्रारंभिक स्वागत के बाद गाँव
की ओर
से कुशल-क्षेम पूंछी
जाती है
साथ ही
मौसम के
बारे में
भी पूछा
जाता है.
गाँव में
मेरा बहुत
आत्मीय स्वागत
हुआ और
फिर कुशल
का पहला
सवाल नेहरु
खां ने
पूछा - " हुकम आपके यहाँ बारिश
तो अच्छी
हुई?" इस सवाल को पूछने
वाले का
सब कुछ
बारिश ने
छीना था
पर अच्छी
बारिश की
कामना उसके
लिए भी
जरूरी थी
और सब
के लिए
भी पर
इस सवाल
को वो
बाद में
भी पूछ
सकता था
पहले-पहल
उसने पूछा
तो मैंने
कहा " आपने पहले बारिश के
बारे में
क्यों पूछा
?"
उसने कहा " हुकम,
हमारे बड़े
ऐसे ही
पूछते थे
, हमको भी
तो उसी
रास्ते पे
चलना पड़ेगा
."
बुजुर्ग मिश्री खां
मुस्करा रहे
थे और
नन्हा देबू
हाथ में
खड़ताल लिए
नेहरु खां
की ओर
देख रहा
था ....... एकटक
- अशोक जमनानी
- अशोक जमनानी