अपनी माटी सम्पादकीय:-2

आखिर कैसे होगी सत्य की विजय ? कौन करेगा रावण का संहार ? क्या हम फिर किसी अवतार की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? दुविधा ग्रस्त भारतीय जन मानस शायद सचमुच किसी अवतार की ही प्रतीक्षा कर रहा है और इस बात को पूरी तरह से विस्मृत कर चुका है कि राम-कथा का आदर्श सामने रखने वाले साहित्य ने उसे अपने विश्वास को उस स्तर पर ले जाने का आग्रह किया है जहां वो अपने भीतर के राम को पहले जगा सके। तुलसी बाबा से इतर कबीर ने भी कहा " एक राम दशरथ का बेटा एक राम घट-घट में बैठा।" विवेकानंद ने भी कमोबेश यही किया , अंग्रेजों की सर्वव्यापी सत्ता के बीच उन्होंने मनुष्य को भारतीय चिंतन का महामंत्र सौंपा ' तत्वमसि'- [वो तुम ही हो ]. पीड़ित मानवता को अमृत-पुत्र होने का विश्वास दिलाना भारतीय चिंतन का ही सुपरिणाम था जिसे स्वामी विवेकानंद ने दोहराया।
भक्ति और आध्यात्म से इतर साहित्य भी यही सूत्र थमाता रहा है। रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा " पागल हइया बने-बने फिरी , आपन गंधे मम कस्तूरी मृग सम " ( पागल की तरह वन-वन में घूमता है, अपनी ही गंध के लिए कस्तूरी मृग की तरह ). भगवान राम भी रावण से युद्ध करने अकेले नहीं गए वरन जंगल में रह रहे सर्वथा उपेक्षित समूह को भी अपना सैन्य-दल बनाकर साथ ले गए। लंका-कांड पढ़िए तो पाएंगे कि अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित रावण से केवल राम ही नहीं लड़ रहे वरन निहत्थे वानर भी भिड़ रहे हैं। राम जी का सामर्थ्य यही है कि अत्यंत शक्तिशाली रावण से लड़ने की ताकत का विश्वास-मन्त्र वो सबमे फूंक देते हैं। ऋषियों से लेकर तुलसी,कबीर, विवेकानंद ,टैगोर और न जाने कितने मनीषियों ने यही कोशिश की है कि हम खुद को भी पहचाने और अपने विश्वास को भी मरने न दें।
वर्तमान दौर में विश्वास खंडित हो रहा है तो उसे टूटने से बचाना होगा ताकि अन्याय के विरुद्ध होने वाले युद्ध में हम अपनी भूमिका भी निर्धारित कर सकें नहीं तो हमारे समक्ष लंका-प्रयाणरत राम भी हुए तो हम इसलिए छुपने की कोई जगह ढूँढ रहे होंगे कि कहीं हमें अपना सुविधापूर्ण जीवन छोड़कर अन्याय के विरुद्ध होने वाले किसी युद्ध में भागीदार न होना पड़े। तुलसी का सन्देश बिल्कुल साफ़ है कि बिना खुद पर विश्वास के राम तो छोड़िये राम-कथा भी नहीं मिलती। अब हमें तय करना है कि अपने खंडित विश्वास को जोड़कर अपनी भूमिका का निर्वाह करना है या फिर पराजित होकर मनाना है - विजय-पर्व।