आज चैती चाँद है। सिंध से रिश्ते के कारण एक पूरे समाज को सिन्धी माना जाता है लेकिन सिंध से रिश्ता तो हर हिंदुस्तानी का है। सिन्धु घाटी की सभ्यता किसी एक समाज की नहीं थी। हम सब के पुरखों का उससे रिश्ता था और इस नाते हम सब का भी रिश्ता है। लेकिन हम उस विरासत के वारिस हैं जो अपनी नहीं हो सकती। इस पीड़ा को समर्पित एक लम्बी सिन्धी कविता की कुछ पंक्तियाँ और उसका हिंदी अनुवाद नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ .......
हुनअ मिट्टी जा वारिस आहियूं
जेका न असां जी थी सघंदी
पर सिन्धु खे असां विसारियू कीयं
आखिर त असां जो अबाणो आ
हम उस मिट्टी के वारिस हैं
जो न कभी अपनी होगी
पर सिन्ध को हम भूलें कैसे
वहां घर अपने पुरखों का है
- अशोक जमनानी
जेका न असां जी थी सघंदी
पर सिन्धु खे असां विसारियू कीयं
आखिर त असां जो अबाणो आ
हम उस मिट्टी के वारिस हैं
जो न कभी अपनी होगी
पर सिन्ध को हम भूलें कैसे
वहां घर अपने पुरखों का है
- अशोक जमनानी