अपनी माटी - सम्पादकीय : हाशिये से बाहर होती संस्कृति
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चित्र-कुँअर रविन्द्र |
संभवत: यही कारण है कि मैं हर हाल में संस्कृति की बात करना ज़रूरी समझता हूँ। तब भी ज़रूरी समझता हूँ जब कुछ पेट फटने की स्थिति में आ गए हों और कुछ पेट पीठ से एकाकार हो चुके हों। शायद इस स्थिति में तो मेरे लिए संस्कृति पर बात करना और अधिक ज़रूरी है क्योंकि इस स्थिति को बदलने की ताकत भी संस्कृति के पास ही है । हजारों वर्षों तक आश्रमों की ऋषि परंपरा और लोक की प्रकृति पोषक परंपरा के ताने-बाने में संस्कृति बनती रही और काल के प्रवाह में कई बार रंग-कुरंग में भीगी-डूबी भी लेकिन उसका अपना मूल रंग कभी नहीं बदला और वो रंग था मानवता का। संस्कृति के समस्त वैविध्य में अद्भुत एकरूपता रही और मूल मंत्र के रूप में भी एक ही निर्देश मिला- 'मनुष्य बनो '। मुझसे कोई पूछे कि भारतीय होने का अर्थ क्या है तो मैं तुरंत कहूँगा 'मनुष्य होना'। और संस्कृति का यही संदेश है जिसने इस देश को दुनिया को रास्ता दिखने का अधिकार दिया है । यही वो मन्त्र है जिसमे न केवल हमारी समस्याओं का समाधान हैं वरन सारी दुनिया की समस्याओं का समाधान है।
शास्त्र और लोक की अन्योन्याश्रय भावना को गाँधी जी ने बिल्कुल सही अर्थों में पहचाना और उस बहुत बड़ी ताकत को जन-जन में भर दिया। ऋषि परंपरा से मिले शास्त्र को गाँधी ने अपढ़ जन-जन में महसूस किया और शास्त्र में जन कल्याण का मार्ग देखा। भरोसा न हो तो अष्टांग योग के यम-नियम देखिए और गाँधी-दर्शन को सामने रखिये। सत्य,अहिंसा,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य आदि सब शास्त्र सौंपता है और इसे जीने का तरीका कभी-कभी बिल्कुल अपढ़ भारतीय सिखा देता है। गाँधी ने दोनों की ताकत को पहचाना और दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को परास्त कर दिया। लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि आज़ादी के बाद जिस संस्कृति को नव-निर्माण का आधार होना था वो संस्कृति धीरे-धीरे हाशिये की ओर सरकती रही और फिर हाशिये से भी हटा दी गयी। वैसे भी लम्बे समय से शास्त्र को धर्म से जोड़ दिया गया है और चेतना प्रधान हिस्से के स्थान पर शास्त्र के जड़तावादी हिस्से को कुप्रचार के माध्यम से सामने रखा गया है । शेष बचा भारतीय। तो वो तो सदियों की ग़ुलामी में बहुत कुछ खो ही चुका था और गाँधी के बाद तो आज़ादी जो नए-नए रंग दिखाती रही उसने भारतीय मनुष्य को मनुष्य होने के सम्पूर्ण गौरव से ही वंचित कर दिया।
आज़ादी के बाद क्या ज़रूरी नहीं था कि गाँधी के प्रयोग को ज़ारी रखा जाता और भारतीय ज्ञान को जीवन शैली बनाने वाली संस्कृति से जोड़ा जाता क्योंकि भारतीय ज्ञान असल में धर्म का नहीं वरन संस्कृति का है और सम्पूर्ण मानवता की धरोहर है। और भारतीय मनुष्य को उसकी जड़ो से काटकर प्रकृति की लूट में शामिल दस्यु दल का हिस्सा बनाने, मानवीय संभावनाओं के विकास के बदले केवल मशीन-आश्रित-पोषक हो जाने और पशुता को आदर्श मान लेने की प्रवृति के पोषक के स्थान पर उसे संस्कृति का वो आदेश मानने की और बढ़ाया जाना क्या ज़रूरी नहीं था जो कहता है मनुष्य बनो। दुर्भाग्य है कि हम ऐसा नहीं कर सके लेकिन क्या अब इसकी बात करने पर भी सवाल खड़े किये जाएंगे ??
विकट से विकट स्थिति में भी संस्कृति की बात इसलिए ज़रूरी है क्योंकि मशीन और पशु बन चुके सम्पूर्ण विश्व के जन-जन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती मानवता को बचाने की है। आज प्रगति के इतने ऊँचे स्तर पर पहुँचने के बावज़ूद भी सबसे अधिक संकट में मनुष्य ही है और उसका कारण है संस्कृति का संकट में होना उस संस्कृति का संकट में होना जो असल में समाधान है।
- अशोक जमनानी