अपनी माटी संपादकीय : बैठारि परम समीप
हर वर्ष की तरह इस बार का दशहरा भी बीत गया । 'पुतले जलाये जा रहें हैं रावण ज़िंदा है' जैसे कई जुमले बासी हो जाने के बावज़ूद इस वर्ष भी लिखे-पढ़े गए और तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच सराहे भी गए । वैसे भी बुद्धिजीवी जुगाली करने में माहिर होते हैं कोई जुमला चल निकले तो बरसों बरस दुहाई दे देकर अपनी दुकानें चला सकते हैं। पर छोड़िये इन्हें; हम कुछ और बात करते हैं। चलिये रावण को छोड़कर राम की बात करते हैं इस ख़तरे के बावज़ूद कि 'बुद्धुजीवी' क्या कहेंगे ? रामचरित मानस मुझे बहुत प्रिय है और इसके कुछ प्रसंग अद्भुत हैं। राम-रावण का युद्ध समाप्त होता है तो लगता है यहाँ लंका काण्ड समाप्त हो जाएगा पर तुलसी बाबा वहां लंका काण्ड समाप्त नहीं करते। सीता-राम के मिलने और लंका छोड़ने पर भी लंका काण्ड पूरा नहीं होता वो पूरा होता है उस गंगातट पर जहाँ राम निषाद को गले लगाते हैं। अद्भुत है यह दृश्य और उतनी ही अद्भुत कविता बाबा लिखते हैं :
"लियो हृदय लाइ कृपानिधान सुजान राय रमापती
बैठारि परम समीप पूछी कुसल सो कर बीनती "
संसार के सबसे बड़े आततायी के अंत के बाद भी तुलसी बाबा ने लंका काण्ड पूरा नहीं किया बल्कि वे अपनी कथा के नायक को सर्वथा अकिंचन एक वनवासी के पास ले गए और और उसे गले लगाकर जब राम अपने पास बिठाते हैं तब मेरे देश का कवि अपने महाकाव्य में विजय का अध्याय पूरा करता है। फिर अगले अध्याय के मंगलाचरण में जब वे राम को पुष्पकारूढ रामम् कहते हैं तो उस छवि में पुष्पक पर राम अकेले नहीं हैं वरन सीता लक्ष्मण के साथ वे मित्र भी हैं जो विजय यात्रा में प्रत्यक्ष-परोक्ष साथी बनें।
शायद इतिहास और साहित्य में कई बार भिन्नता इसलिए दिखायी देती है क्योंकि जीत का इतिहास बहुधा नायकों के यशोगान पर जाकर रुक जाता है परन्तु साहित्य वो नाम भी ढूंढता है जो इतिहास में अनाम रह जाते हैं। इतिहास के लिए विजय महत्वपूर्ण है परन्तु साहित्य विजेता का आचरण भी देखता है इसलिए इतिहास ने लुटेरे विजेताओं को भी विजेता माना पर साहित्य ऐसी विजय पर रो पड़ा।
राम के ईश्वर होने से भिन्न उन्हें एक कवि के नायक के रूप में देखिये। तुलसी बाबा रामचरित्र में एक कवि की मंगल कामनाओं का समावेश करते हैं इसलिए विजेता राम के साथ वे सब भी खड़े दिखायी देते हैं जो युद्ध में साथ थे और वो निषाद भी साथ है जिसके लिए राम राज्य की स्थापना करनी है।
पर युग बदलते हैं तो नायक भी बदल जाते हैं। अब नायकों को एकाकी छवि प्रिय है इस दौर में यश का कुछ भाग भी किसी दूसरे को देने पर नायकों को अपने अस्तित्व पर संकट दिखने लगता है। इसलिए सारे नायक अपने-अपने पुष्पक विमान पर अकेले खड़े हैं। शायद इसीलिए इतिहास को तो नायक मिल रहें हैं पर सच्चे कवि नायक की प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं …
- अशोक जमनानी