किसी भी बांध के दो चेहरे होते हैं। सामने का चेहरा बारिश में बांध भर जाने पर प्रवाह की पराकाष्ठा का प्रतीक बनता है परन्तु शेष समय सूखा रह जाता है। लेकिन बांध के पीछे का चेहरा बहुत पानीदार होता है। बरगी में बांध के पीछे का दृश्य देखा तो अवाक् रह गया। 300 किलोमीटर पहले जो नर्मदा एक छोटे से कुण्ड में समायी थी फिर जिसके प्रवाह ने नदी का सारा सौंदर्य संजोया और रुकने लगी तो झील सी लगी वही नर्मदा बरगी में समुद्र के किसी टुकड़े की तरह विशाल हो चुकी थी। जहाँ तक नज़र जा सकती थी वहां तक पानी ही पानी था। दूर क्षितिज तक जल ही जल। वहां छायावाद के महाकवि जयशंकर प्रसाद याद आये और उनकी यह कविता याद आयी .......
ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनि रे
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु सी पड़े दिखायी
दुःख सुख वाली सत्य बनी रे
सचमुच इस विश्व चित्रपट चल माया में कहीं कहीं विभुता विभु सी दिखायी पड़ती है … सचमुच
- अशोक जमनानी
ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनि रे
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु सी पड़े दिखायी
दुःख सुख वाली सत्य बनी रे
सचमुच इस विश्व चित्रपट चल माया में कहीं कहीं विभुता विभु सी दिखायी पड़ती है … सचमुच
- अशोक जमनानी